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26/08/2010   गेम्स पर 28 हजार करोड़, गलत प्राथमिकता है
विप्रो के चेयरमैन और भारत के सबसे सम्मानित बिज़नस लीडर्स में से एक अज़ीम प्रेमजी ने भी कॉमनवेल्थ गेम्स पर हो रहे खर्च पर सवाल उठाए हैं....

हाल ही में, केंद्रीय सरकार ने यह खुलासा किया है कि दिल्ली में हो रहे कॉमनवेल्थ गेम्स पर लगभग 11,494 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है। दो कारणों से, यह आंकड़ा, बेचैन करने वाला है - पहला, क्योंकि यह शुरुआती के 655 करोड़ रु. के एस्टिमेट से कई गुना ज्यादा है और दूसरा - गेम्स की असल लागत इससे भी कहीं ज्यादा होगी अगर हम इन खर्चों को भी शामिल करें, मसलन:

- 16,560 करोड़ रुपये जो दिल्ली सरकार राजधानी के इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने में खर्च कर रही है। एक नया एयरपोर्ट टर्मिनल, चौड़ी सड़कें, नए फ्लाईओवर, मेट्रो रेल का प्रसार वगैरह।

- मजदूरी की असल लागत - गेम्स प्रॉजेक्ट्स पर काम रहे मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी से कम पैसे मिलना, असुरक्षित हालात में काम करना और इंसानों के न रहने योग्य झुग्गियों में जीवन बसर करना।

गरीबों और निचले तबके के लोगों को शहर से दूर, हमारी नजरों से दूर भगाने की मानवीय लागत।

कॉमनवेल्थ शब्द का असली अर्थ है जनकल्याण - ऐसे काम जो समाज की बेहतरी के लिए किए जाएं। क्या कॉमनवेल्थ गेम्स इस इम्तिहान को पास कर पाएंगे? क्या जनता की कमाई के 28 हजार करोड़ वाकई समाज की बेहतरी के लिए हैं?

मैं इसस सवाल का जवाब देने से पहले, गेम्स पर अपनी राय साफ कर दूं। सेलिब्रेशन या खुशी मनाने का भाव हम सबके ह्रदय की गहराई में बसा हुआ है। किसी आध्यात्मिक गुरु की सीख, एक राष्ट्र का उद्भव या फिर एक बच्चे का जन्म - इन सबको सेलिब्रेट करना जरूरी है, क्योंकि उन बातों की याद दिलाते हैं जो हमें सबसे ज्यादा प्रिय हैं।

किसी खिलाड़ी को अपनी शारीरिक और मानसिक सीमाओं को लांघते हुए देखना और नए कीर्तिमान स्थापित करना देखने वालों के लिए वाकई गजब का अनुभव होता है। ओलिंपिक की तरह ही कॉमनवेल्थ गेम्स, मानव की नई ऊंचाइयों को छूने के जज्बे का सेलिब्रेशन है। तो, अपनेआप में, गेम्स एक अच्छा प्रयास है।

लेकिन, दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स पर हजारों करोड़ रुपये के खर्च को देखते हुए यह सवाल उठाने की जरूरत है कि क्या यह धन सही तरीके से, समझदारी से खर्च किया जा रहा है। एक राष्ट्र के रूप में हम हमेशा धन की कमी से जूझते आए हैं। उदाहरण के लिए, भारत को बड़ी संख्या में नए स्कूलों, मौजूदा स्कूलों में बेहतर इंफ्रास्ट्रक्चर और ज्यादा टीचर रखने की जरूरत है। इसके लिए हमें जीडीपी का 6 फीसदी शिक्षा पर खर्च करना चाहिए जबकि हम इसका आधा भी नहीं दे पाते।

इसी तरह से, देश में खेल के लिए बुनियादी ढांचे बेहद जरूरत है। खेलों को बढ़ावा देने के लिए, हमारी पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि हम यह सुनिश्चित करें कि ज्यादा से ज्यादा बच्चों को खेल के मैदान तक एक्सेस मिले। उन्हें अच्छे साज-ओ-सामान और बढ़िया कोचिंग मिले। यह बुनियादी काम करने की बजाय, हम एक आयोजन पर लंबा-चौड़ा खर्च करें, तो यह साबित करता कि हमारी प्राथमिकताएं गलत हैं।

पिछले दो दशकों के दौरान हुई तेज आर्थिक तरक्की के बावजूद, सचाई यही है कि भारत एक गरीब देश है। कुछ दिनों पहले ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी ने दुनिया के अत्यधिक गरीब देशों में शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन स्तर पर एक अध्ययन करवाया। इस अध्ययन में यह बात सामने आई कि बड़े पैमाने पर, भारत अब भी गरीब देश ही है। सच तो यह है कि अफ्रीका के सबसे निर्धन 26 देशों में भी गरीबों की संख्या उतनी नहीं है, जितनी भारत में।

दिल्ली में गरीबी सबसे कम है जबकि इस स्केल के दूसरे सिरे पर - बिहार की 81 फीसदी जनता गरीबी में जी रही है। इसलिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि कॉमनवेल्थ गेम्स में एक लाख से ज्यादा मजदूर बिहार के हैं जो न्यूनतम से कम मजदूरी पर भी अपना खून-पसीना दिल्ली में आकर बहा रहे हैं।

वैसे भी देश में सबसे अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर दिल्ली में ही है। ऐसे में, राजधानी की सड़कों को चौड़ा करने पर करोड़ों रुपये खर्च करने की बजाय क्या हमें बिहार में स्कूल और सड़कें नहीं बनानी चाहिए, जहां ये चीजें हैं ही नहीं? अगर हमारे पास 500 करोड़ रुपये हों तो हमें उससे तमाम स्कूलों में बेसिक स्पोर्ट्स इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने की बजाय क्या एक ही स्टेडियम के रेनोवेशन पर फूंक डालना चाहिए?

वास्तविक दुनिया में, यह तय करना काफी मुश्किल हो सकता है। जैसे कि, दिल्ली जैसे मेट्रो शहरों में इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च करना भी जरूरी है क्योंकि इस खर्च की बदौलत हमारी राष्ट्रीय इकॉनमी को बढ़ावा मिलेगा। हमारे नेताओं को लगातार भिन्न प्राथमिकताओं के बीच किसी एक को चुनना होता है। ऐसा नहीं कि यह फैसले लेने के लिए उनके पास जानकारी नहीं होता या फिर उनकी नीयत साफ नहीं होती। इस दशक के दौरान भारत सरकार ने सामाजिक कल्याण और सबके विकास के लिए नरेगा और सर्व शिक्षा अभियान जैसे कार्यक्रम शुरू किए हैं।

लेकिन, नरेगा जैसे खास कार्यक्रमों से ही बात नहीं बनेगी। बल्कि, हमारी नीतियों और स्कीमों में प्रत्येक व्यक्ति के विकास की गुंजाइश होनी चाहिए। मैं कहना चाहता हूं कि हमारी सरकारी नीतियों में यह बात साफ तौर पर सामने आनी चाहिए कि डबल डिजिट जीडीपी ग्रोथ तब तक बेमानी है जबतक यह देश के गरीब-गुरबे और सबसे पिछड़े हुए तबके का भला नहीं करती।

हम यह बात कैसे भूल सकते हैं कि 28 हजार करोड़ रुपये से हम हजारों गावों में स्कूल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बना सकते थे। क्या हम इस फिजूलखर्ची को अनदेखा कर पाएंगे जब एक भूखा और कुपोषित बच्चा हमारी आंखों में देखेगा?

ऐसे समय में, यदि हमारे नेता गांधीजी के उस गुरुमंत्र की याद करें तो अच्छा होगा - ' गांधी जी कहते हैं, मैं तुम्हें एक ताबीज देता हूं। जब भी दुविधा में हो या जब अपना स्वार्थ तुम पर हावी हो जाए, तो इसका प्रयोग करो। उस सबसे गरीब और दुर्बल व्यक्ति का चेहरा याद करो जिसे तुमने कभी देखा हो, और अपने आप से पूछो- जो कदम मैं उठाने जा रहा हूं, वह क्या उस गरीब के कोई काम आएगा? क्या उसे इस कदम से कोई लाभ होगा? क्या इससे उसे अपने जीवन और अपनी नियति पर कोई काबू फिर मिलेगा? दूसरे शब्दों में, क्या यह कदम लाखों भूखों और आध्यात्मिक दरिद्रों को स्वराज देगा?'



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