(चन्दन कुमार, नई दिल्ली)भारत मे भाषा विवाद कोई नई बात नहीं है। आजादी के उपरांत भी यह एक बहुत बड़ा मुद्दा बनकर उभरा था। पर इसके मायने उस समय कुछ और था। उस समय हाल ही भारत अंग्रेजी शासन से आजाद हुआ था जिसके कारण राष्ट्र की एकता अखंता और संप्रभुता को लेकर कौन सी भाषा राष्ट्र की राष्ट्रीय भाषा हो यह विषय बना हुआ था। जबकि आज देश के कुछ गिने- चुने तथाकथित राजनीतक लोग अपनी सियासी जमीन तलासने के लिए भाषा को जबरदस्ती का मुद्दा बना रहे है। हाल के दिनों की बात करें तो महाराष्ट्र मे ठाकरे बंधुओ ने जिस प्रकार भाषाई आधार पर अपनी राजनीति चमकाने की एक नाकाम कोशिश की है, गैरजरूरी ही नहीं बेतुकी भी है । ऐसे लोगों के प्रति यदि प्रसाशन गंभीरता नहीं दिखाती है तो अन्य राज्यों मे भी ऐसी घटनाए देखने को मिल सकती है।
17 मार्च 1958 को आर्गनाइजर समाचार पत्र में प्रकाशित पं. दीनदयाल उपाध्याय जी का लेख इसी भाषा विवाद पर केंद्रित है। जिसमें दीनदयाल जी ने बताया है कि – देश की आधिकारिक भाषा क्या होनी चाहिए, यह निर्णय करने से पहले हमें यह तय कर लेना होगा कि क्या हम संगठित रहना चाहते हैं। राष्ट्र की एकता एक ऐसा तथ्य है, जिस पर कोई भी प्रश्न नहीं उठना चाहिए तथा न ही इसे प्रमाणित करने या इसका खंडन करने के लिए कोई बहस होनी चाहिए। राष्ट्रीय एकता प्रतिबंधात्मक, संवैधानिक, संस्थागत अथवा संविदात्मक नहीं होती है। यह वास्तविक, यथार्थपरक और स्वतः सिद्ध होती है। यह इस आधार पर होती है कि हम एक साथ रहने का संकल्प लें, एक साथ चलने का निश्चय करें- कि आओ, हम अलग नहीं होंगे, कोई हमें अलग नहीं कर सकता। हम एक भाषा चाहते हैं, क्योंकि हम एक हैं। हम भाषा की वजह से एक नहीं हैं और न ही हम इसलिए एक रहेंगे कि हमारी एक भाषा है। स्विट्ज़रलैंड में बहुभाषी लोग एक साथ रहते हैं, और हम सदियों से एक साथ रहते चले आ रहे हैं। कोई भी विभाजन की बात न करे। यदि कोई करता है तो वह विचार-विमर्श में भागीदारी का अधिकार खो देगा। यह केवल भाषा का प्रश्न नहीं है, जिसका हमें निर्णय करना है। हमें अपनी जीवनयात्रा में सैकड़ों प्रश्नों का निर्णय करने की आवश्यकता है। और यदि हम प्रत्येक प्रश्न का निर्णय हंगामे से डरते हुए करेंगे तो हम कभी सही निर्णय नहीं कर सकते। जो कोई राष्ट्र के साथ एक होने के भाव को नहीं मानता, उसके आगे झुक जाना हमेशा लज्जाजनक होगा। राष्ट्रों के, संगठनों के और परिवारों के इतिहास में इस बात के अनेक प्रमाण हैं कि एकता जैसे आधारभूत प्रश्न पर उदंड लोगों को छूट देना हमेशा ही विभाजन का मार्ग प्रशस्त करता है। मूल सिद्धांतों पर कोई समझौता नहीं हो सकता। ऐसे लोगों को छूट देना केवल समझौता करना भर नहीं है। यह तुष्टीकरण है। जिसने अलग रहना तय कर लिया हो, उसे कभी भी तुष्टीकरण से मनाया नहीं जा सकता। इसलिए इस बिंदु पर कभी भी कमजोरी न आने दें, कमजोरियाँ पृथकतावादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देती हैं। हंगामा कमजोरी का परिणाम होता है और जब तक आप दृढ इच्छाशक्ति और निर्याणक कार्रवाइयों के अभाव का प्रदर्शन करते रहेंगे, आप कभी भी संगठित नहीं हो सकते।
दीनदयाल जी का भाषा को लेकर दूसरा लेख “हिंदी का विरोध निराधार” शीर्षक के साथ ऑर्गनाइज़र में 16 जुलाई 1956, को प्रकाशित हुआ था। जिसका सार इस प्रकार है- संविधान ने हिंदी को सार्वदेशिक कामकाज के लिए प्रशासकीय भाषा के रूप में स्वीकार किया है।’ उसे यह स्थान उसकी व्यापकता के कारण ही प्राप्त हुआ है। हिंदी साहित्य का जिन्हें ज्ञान नहीं अथवा जो उसकी महत्ता को मानने के लिए तैयार नहीं, ऐसे भारतीयों द्वारा भी उसे बहुत बल मिला और जब संविधान में भाषा संबंधी अनुच्छेद रखे गए, सब हिंदी के कट्टरपंथी लोगों को चाहे संतोष न हुआ हो, भारत की सभी भाषाओं के प्रतिनिधियों के एकमत से निर्णय लिये गए। किंतु आज छह वर्ष बाद जो स्थिति है. वह कोई संतोषजनक नहीं। राष्ट्र के विकास के अन्य क्षेत्रों में जैसे हम आतुरता दिखाते हैं, वैसे ही यदि कुछ लोग राष्ट्र की सामान्य भाषा हिंदी के प्रचार के लिए अनुरोध करें तो कोई अस्वाभाविक नहीं। किंतु उनके इस अनुरोध का लोग ग़लत अर्थ लगा रहे हैं।
हिंदी को सामान्य भाषा का स्थान केवल दो भावनाओं के कारण ही प्राप्त हुआ है। 1. भारत की एकता की कामना, 2. विदेशी भाषा से मुक्ति की बहुतों में अंग्रेज़ी शासन की एक प्रतिक्रियात्मक भावना मात्र थी, कम हो गया है। फलतः हिंदी का विरोध बढ़ता जा रहा है। हिंदी प्रचार में आज बहुत से लोगों को साम्राज्यवाद की गंध आती है और वे आक्रोश करने लगते हैं कि हिंदी हमारे ऊपर जबरदस्ती थोपी जा रही है तथा वह हमारी प्रादेशिक भाषाओं को समाप्त कर देगी।
