मकर संक्रांति के दिन उत्तराखण्ड में शकरपारे /गुड़पारे और घुघुते बनाए जाते हैं और अगले दिन बच्चे इनकी माला पहनकर घर के बड़ों के साथ बडे़ स्नेह के साथ कौवों को आवाज़ देकर उन्हें ये पकवान खाने के लिए देते हैं. इस त्यौहार के बारे में बड़ी रोचक कहानी है. कहते हैं कि चन्दवंश के राजा कल्याणचन्द की कोई संतान नहीं थी, इस बात को लेकर राजा चिंतित रहते थे, लेकिन इस बात से खोटी नियत वाला राजा का मंत्री बड़ा खुश रहता था और राजा के निधन के बाद उनका राज्य हड़प लेना चाहता था.नन्हा घुघुति धीरे धीरे बड़ा हो रहा था तो दूसरी ओर राज्य को उसका उत्तराधिकारी मिलने के बाद कुटिल मंत्री के राज्य हड़पने के अपने सपने पर पानी फिर जाने के बाद छाती पर साँप लाेट रहा था. वह घुघुति के नाम के इस काँटे को रास्ते से हटा देना चाहता था.
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अपनी इस कुटिल योजना को अंजाम देने के लिए एक दिन घुघुति (निर्भय चन्द) को बहला फुसला कर अपने कुछ दुष्ट साथियों के साथ गहरे जंगल में ले गया. कौवों को षड्यंत्र की बू आई तो वो भी मंत्री और उसके साथियों के पीछे हो लिए. गहरे जंगल में जब मंत्री घुघुति को मारने को उद्यत था तो कौवों ने चोंच मार मार कर मंत्री और उसके साथियों को घायल कर दिया. जान बचाने के लिए मंत्री और उसके साथी भाग खड़े हुए. तब कौवे घुघुति के चारों ओर सुरक्षा घेरा बना कर बैठ गए. एक कौवा घुघुति के गले से घुँघरू लगे मोती की माला को उतार अपनी चोंच में पकड़ महल की ओर उड़ चला. राजा रानी संकट भाँप कर कौवे के साथ हो लिए. कौवा उड़ता, फिर एक पेड़ पर सुस्ताता, राजा रानी के पास आने पर उड़कर फिर अगले पेड़ पर जा बैठता. इस तरह वह उस घने जंगल में ले गया जहाँ पेड़ के नीचे घुघुति गहरी नींद में सो रहा था और कौवे उसका पहरा कर रहे थे. अपने लाडले को सुरक्षित पाकर राजा रानी का खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वे उसे महल ले आए. रानी ने कौवों के इस उपकार के लिए उन्हें ढेर सारे पकवान बना कर खिलाए. सम्भवतः वह मकर संक्रांति का दिन रहा होगा. तब से लेकर अब तक मकर संक्रान्ति के दिन ढेर सारे पकवान बना कर अगले दिन कौवों को बुलाकर देने की परम्परा है. चूँकि यह पर्व नन्हे घुघुति की याद में मनाया जाता है, इसलिए इसे घुघुति त्यार (त्यौहार) का नाम दिया गया है. और इस दिन बनाए जाने वाले पकवान को घुघुते कहा गया. आज के दिन कुमाऊँ मैं छोटेबच्चे गले में पकवानों को माला पहन कर कौवों को बुलाते हैं और उन्हें घुघुते और गुड़पारे खाने के लिए देते हैं. लेकिन बुलाने का अंदाज ठीक वैसा ही है, जैसे रानी नन्हे घुघुति की जिद छुड़ाने के लिए कौवों को बुलाती थी, ‘काले कौवा काले, घुघुति माल खाले.’ पहाड़ में जैसे लक्ष्मी दत्त का लछिया, मथुरादत्त का मथुरिया हो जाता है, उसी तरह घुघुति का घुघुतिया हो गया. सभी सुहृज्जनों को काले कौवा और घुघुतिया की ढेर सारी शुभकामनाएं 🌺
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एक बात और, प्रयागराज और महाकुंभ के शुभावसर पर हरिद्वार में माघ के महीने का पवित्र स्नान कोविड के सख्त दिशानिर्देश के अन्तर्गत चल रहा है जो माघ के पूरे मास चलता रहेगा., ऐसी परम्परा रही है, लेकिन वाइरस के चलते हम सबके लिए तो यह सम्भव नहीं है, तो क्यों न हम अपने भीतर झाँके और इस पवित्र स्नान का आनन्द लें. हमारे अंतर में बुद्धि की प्रतीक इड़ा नाड़ी है, भावना की प्रतीक पिंगला है और शुद्ध चेतना की प्रतीक सुषुम्ना नाड़ी है तो क्यों न प्रतिदिन इस पवित्र त्रिवेणी में अवगाहन कर बुद्धि को निर्मल और कल्याणकारी बनाएँ ।