व्यापारियों के शिखर संगठन कॉन्फ़ेडरेशन ऑफ़ आल इंडिया ट्रेडर्स (कैट) जो इस मुद्दे पर दिल्ली के व्यापारियों की अगुवाई कर रहा है के राष्ट्रीय महामंत्री श्री प्रवीन खंडेलवाल ने इस गंभीर मुद्दे पर आज यहाँ जारी एक वक्तव्य में कहा की इस मुद्दे को लेकर कुछ तत्वों द्वारा बेवजह दिल्ली के व्यापारियों को खलनायक के रूप में चित्रित करने का प्रयास किया जा रहा है और वास्तविकता एवं तथ्यों को तोडा मरोड़ा जा रहा है ! यह और भी दुर्भाग्यपूर्ण है की न्यायालयों का सहारा लेकर विधि सम्मत कानूनों के होते हुए भी सामानांतर कानूनी व्यवस्था स्थापित करने के प्रयास भी जारी हैं !
एक मोटे अनुमान के अनुसार दिल्ली में लगभग 5 लाख से अधिक व्यापारी किराये की दुकानों से अपना छोटा बड़ा व्यापार करते हैं जबकि दूसरी और लगभग 25 लाख से अधिक लोग किराये के मकानों में रह कर अपनी गुजर बसर कर रहे हैं ! दिल्ली में अन्य राज्यों के प्रवासी नागरिक बड़ी संख्या में नौकरी करते हैं और किराये के मकानों में रहते हैं इस दृष्टि से नए किराया क़ानून का संतुलित होना बेहद जरूरी है नहीं तो दिल्ली का व्यापारिक स्वरुप ही नहीं अपितु आर्थिक ढांचा भी बुरी तरह चरमरा जाएगा !
श्री खंडेलवाल ने किराये पर चल रही दुकानों के किरायेदारों द्वारा कथित बेहद कम किराया देकर मकान मालिकों के शोषण करने के आरोप को नकारते हुए कहा की वास्तविकता ठीक इसके उलट है ! यह एक सर्वविदित तथ्य है की जब किराये पर संपत्ति दी गयी उस वक़्त संपत्ति की कीमत के बराबर की राशि पगड़ी के रूप में मकान मालिक को दी गयी लेकिन फिर भी किरायेदार मकान मालिक नहीं बन सके क्योंकि उस समय दिल्ली में लगभग सभी संपत्तियां सरकारी लीज पर थीं जिन्हें मकान मालिक कतई बेच नहीं सकता था और संपत्ति हिस्सों में विभाजित भी नहीं सो सकती थी ! व्यापार करने के लिए अथवा बिजली पानी का मीटर लेने के लिए बेहद कम किराये की रसीद दी गयी और पूरे पैसे देने के बाद भी किरायेदार ही रहना पड़ा !
उदहारण के तौर पर उन्होंने ने बताया की वर्ष 1950 में उस समय संपत्ति की कीमत यदि 50 हज़ार रुपये थी तो किरायेदार ने 50 हज़ार रुपये पगड़ी के रूप में दिए और यदि बैंक के फार्मूले को अपनाया जाये जिसमे 5 वर्ष में रकम दोगुनी हो जाती है तो उस हिसाब से वर्ष 2013 में पगड़ी के रूप में दिए हुए रुपयों की कीमत लगभग 32 करोड़ रुपये हो जाती है Back