लफंगे जिस विषय वस्तु पर बनी है ...फिल्म में उसका हर जगह अभाव दिखता है।
दिपिका पादुकोण कई जगहों पर खूबसूरत तो दिखी है लेकिन अभिनय बेहतर नहीं कर पाई है।
परिणीता के निर्देशक प्रदीप सरकार की लफंगे परिंदे लुक और अप्रोच में मॉडर्न होने के बावजूद प्रभावित नहीं कर पाती। फिल्म की रफ्तार बहुत धीमी है और कई जगहों पर फिल्म पूरी तरह बिखर गई है। फिल्म अपने विषय से कई बार भटकती हुई नजर आती है। फिल्म की पकड़ कई जगह कमजोर पड़ती हुई दिखती है और कई बार यह पता नहीं चलता कि फिल्म का आखिर सब्जेक्ट क्या है।
मुंबई की स्लम लाइफ दिखाने में लेखक-निर्देशक नाकाम रहे हैं, क्योंकि सोच और दृष्टि का आभिजात्य हावी रहा है। फिल्म की जमीन स्लम की है, लेकिन उसकी प्रस्तुति यशराज की किसी और फिल्म से कम चमकीली नहीं है। इस वजह से लफंगे परिंदे वास्तविकता और फंतासी के बीच फड़फड़ाती रह जाती है। नील नितिन मुकेश और दीपिका पादुकोन अपनी मेहनत के बावजूद किरदारों को निभा नहीं पाते। अंधी दीपिका ने पूरी फिल्म में निराश किया हैं। अंधे होने के बाद भी उनके बोलने और चलने-फिरने में कोई फर्क ही नहीं आता।